कल मैने कुछ शब्दो के ज़रिये अपने भावनाओ को रखा था।
माफ़ी चाहूँगा, कुछ तकनीकी कारण से वो पोस्ट शायद सही से छप नहीं पाया और ऐसा लगता था की शब्द बार बार दोहराये जा रहे है । अत: , मैं फिर से उसको दोबारा पेश कर रहा हूँ। त्रुटी के लिये क्षमा प्रार्थी ।
भटकता राही
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अज़नबी शहर में, अकेला भटक रहा हूँ मैं ।
अन्जान राहों में, अकेला भटक रहा हूँ मैं ।।
ठहरे हुए इन हवाओ में , बेवज़ह ,
श्वास तलाश करता भटक रहा हूँ मैं ।।
पत्थर के मकान, पत्थर के भगवान ।
मिला जो भी यहाँ, वो भी पत्थर जैसा ।।
पत्थर की हर मूरत में , बेवज़ह ,
धरकन तलाश करता भटक रहा हूँ मैं ।।
समन्दर है ठहरा हुआ, हवायें हैं रूकी हुई ।
फूल है मुर्झाये हुए, ओस हैं पत्थराई हुई ।।
मरघट से इस आलम में , बेवज़ह ,
ज़िन्दगी तलाश करता भटक रहा हूँ मैं ।।
पत्थर के मकान, पत्थर के भगवान ।
ReplyDeleteमिला जो भी यहाँ, वो भी पत्थर जैसा ।।
बड़ी त्रासदी है ये आज की
समन्दर है ठहरा हुआ, हवायें हैं रूकी हुई ।
ReplyDeleteफूल है मुर्झाये हुए, ओस हैं पत्थराई हुई ।।
मरघट से इस आलम में , बेवज़ह ,
ज़िन्दगी तलाश करता भटक रहा हूँ मैं .....
संवेदनशील रचना है ..... ज़िंदगी की तलाश जारी है ...
पत्थर के मकान, पत्थर के भगवान ।
ReplyDeleteमिला जो भी यहाँ, वो भी पत्थर जैसा ।।
बिलकुल सच कह दिया भाई
Sher Arz Hai..........
ReplyDeleteke, ajnabi shahar me, ajeeb se log hain yahan, jahaan bhi jaata hun, tanha paata hun apne ko yahaan..Aur ae samandar kah de apni lahron se , koi aisi lahar aaye jo bana de meri taqdeer yahan.............
पत्थर की हर मूरत में , बेवज़ह ,
ReplyDeleteधरकन तलाश करता भटक रहा हूँ मैं ।।
bhavukta se ot-prot hai ye rachana.......
संवेदनशील रचना है ..... ज़िंदगी की तलाश जारी है ...
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