तेरे जहाँ में , ए ख़ुदा , ऐसा घर भी है कहीं?
की जिसमे, ग़म के कदमो की आहट न हो !
तेरे जहाँ में, ए ख़ुदा, ऐसी निगाहे भी है कहीं ?
की जिसमे, अश्को का सैलाब न हो !
तेरे चमन में , ए ख़ुदा , ऐसी कली भी है कहीं ?
की जिसके दामन में एक काँटा न हो?
तेरे दिए हुए हर सांस में , एक पल भी है कहीं ?
की जिस पर मौत का साया न हो ?
तेरे बनाये हुए दिल में , ऐसा है क्यों नहीं ?
की नफरत के लिए जिसमे जगह न हो !
ऐसा है क्यों नहीं ?
ऐसा है क्यों नहीं ?
स्वागत है ब्लागजगत में , बहुत सुंदर ,सार्थक और सामयिक रचना
ReplyDeleteसुन्दर कविता बधाई ।
ReplyDeleteबहुत बढिया निशब्द हो गया मै
ReplyDeleteअच्छी रचना है ........ पर आप देखिए उसकिनगरी में फूल भी हैं, काँटे भी, खुशी है तो गम भी सब कुछ दिया है उसने तो .... हर किसी के लिए ........
ReplyDeletebahut sundar lekhni chala lete hai aap ....
ReplyDeletebadhaai ...
sab kuch hai yanha sawal ye bhee hai ki aapkee nigah kanha jatee hai kanha atakatee hai aur ulajh rah jatee hai.......
ReplyDeletemaine aapki sabhi rachnaye deki ek se badh kar ek..........
ReplyDeletemaja aa gya.......
behtreen.............