Saturday, May 29, 2010

दर्द - एक पिता का

मेरी ज़िन्दगी के बीते हुए उन पलो को शायद तुम भूल गये,
तुम्हारी ज़िन्दगी का गुजरा हुआ हर लम्हा लेकिन, याद है मुझे ॥
मेरे निगाहों का दर्द महसूस करना आज, शायद तुम भूल गये,
तुम्हारे होठों को छूकर जाने वाली हर मुस्कान, याद है मुझे ॥

आज मेरा हाथ पकड़कर सहारा देना, शायद तुम भूल गये,
नन्हीं उंगलियाँ पकड़कर तुम्हे चलना सिखाना, याद है मुझे ॥
मेरे साथ बैठकर दो बाते करना आज, शायद तुम भूल गये ,
तुम्हारी तोतली ज़ुबान से पहली बार पापा कहना, याद है मुझे ॥

आज मेरे लिये थोड़ा सा वक्त निकालना, शायद तुम भूल गये,
तुम्हारे साथ हर रात जागकर कहानियाँ सुनाना, याद है मुझे ॥
सफर पर निकलते वक्त आशिर्वाद लेना आज, शायद तुम भूल गये,
खुदा से तुम्हारी सलामती की दुआ माँगना आज भी, याद है मुझे ॥

ठंठ मे सिकुड़ते इस बदन पर कम्बल डालना, शायद तुम भूल गये,
वो तुम्हारे लिये हर नये फैशन के कपड़े खरीदना, याद है मुझे ॥
अपने नये मकान मे मेरे लिये जगह बनाना, शायद तुम भूल गये,
तुम्हारे पढ़ाई के लिये अपना पुशतैनी ज़मीन बेचना, याद है मुझे ॥

आज अपने से दूर भेज कर मिलने आना, शायद तुम भूल गये,
बचपन मे मेरे घर आने पर मुझसे आकर लिपटना, याद है मुझे ॥
मेरी ज़िन्दगी के बीते हुए उन पलो को शायद तुम भूल गये,
तुम्हारी ज़िन्दगी का गुजरा हुआ हर लम्हा लेकिन, याद है मुझे ॥

Saturday, May 8, 2010

माँ

खुदा की ईबादत भी कर लूंगा फ़ुरसत में ,
जरा माँ से दो बातें तो कर लूँ, इत्मीनान से ॥

कहते है, माँ का स्थान, इश्वर से भी बड़ा होता है, सच है शायद ।
कल "मदर्स डे" है, यानी माँ का दिन । मेरा खुद का ये मानना है कि कोई एक दिन माँ का नहीं हो सकता । हर दिन माँ का होता है क्योंकि माँ की दुआयें हमेशा हमारे साथ रहती है । बड़े खुशनसीब होते है वो, जिन्हे माता पिता का आशिर्वाद प्राप्त होता है और भाग्यशाली होते है वे, जिन्हे माता पिता का सेवा का अवसर प्राप्त होता है । माँ से सम्बंधित कुछ भावनायें, जो कभी मेरे मन मस्तिक मे दस्तक देती थी, उन्हे शब्दो के रूप में ढालकर, दो दो पन्क्तियाँ मे पेश कर रहा हूँ ।

खुदा की ईबादत भी कर लूंगा फ़ुरसत में ,
जरा माँ से दो बातें तो कर लूँ, इत्मीनान से ॥

रूठे ज़माना मुझसे, शायद नाराज़ हो ख़ुदा भी,
यकीन है, माँ मुझसे कभी खफ़ा नहीं होगी ।

आजकल शायद, फ्लैटो में जगह कम होती हैं ।
आजकल बेटे अपने माँओ को शहर नहीं लाते ॥

शहर आकर, हर रोज़, खाते वक्त यही सोचा किये,
रोटीयाँ तो अपने गावँ में, माँ भी रोज़ पकाती थी ॥

जब भी नींद ने मेरी निगाहों से दुशमनी कर ली ,
मेरे कानो ने माँ की लोरीयों के साथ दोस्ती कर ली ॥

बचपन मे, मैने अपने माँ के चेहरे पर तब मायूसीयत देखी थी ,
जब मेले में, मेरे खिलौने के लिये माँ के पास पैसे कम निकले॥

बेटा शायद लौटने का वादा करके, कमाने शहर को चला था ।
आज भी तकती रहती है दहलीज़ की तरफ़ बूढ़ी माँ की आँखें ॥

बेखौफ़ होकर निकल पड़ता हूँ, घर से हर सुबह ,
ढाल बनकर, मेरे साथ मेरी माँ की दुआयें रहती हैं ॥