कभी तुम थर्र-थर्र कापाँ करते थें हमारी गर्जना से,
आज हम तुम्हारी कदमों की आहट से घबराते हैं ।
कभी तुम नज़रे नहीं मिला पाते थें हमारी नज़र से,
आज हम तुम्हारा सामना करने से कतराते हैं ॥
कभी तुम जागा करते थें रातो को, हमारे खौफ़ से,
आज हम अपने बच्चो को सीने से लगाये रहते हैं ।
सोते हो तुम चैन से, ईट-पत्थरों से बनायें हुए घर पे,
और हम खुले जंगलों मे भागे- भागे फिरते हैं ॥
कभी हम एक, भारी पड़ते थें, तुम्हारे जैसे सैकड़ो पर,
आज तुम्हारी एक गोली से ज़ान बचाकर भागते हैं ।
हमने जब भी संहार किया, मज़बूरी में, पेट के खातिर किया,
पर तुम्हारे जैसे, हमको मार कर दिवार पर सजाते हैं ॥
यूँ तो, कहने को, हम इस देश मे राष्ट्रीयता के प्रतीक हैं ।
पर, बाशिन्दे यहाँ के, हमारे ही खालो का सौदा करते हैं ॥
सुना हैं, अब हम, एक हज़ार चार सौ ग्यारह, ही जीवित बचे हैं ।
आज तुमसे ज़िन्दगी की भीख नहीं, इन्सानियत का दावा करते हैं ॥
Wednesday, February 17, 2010
Tuesday, February 16, 2010
एक सवाल तुमसे
वो प्यार तुम्हारा मुझसे, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ।
वो मुझको अपना कहना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो स्पर्श, वो आलिंगन, वो कोमल हाथों की छुवन ।
वो तुम्हारा मुझ में समाना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो साथ चलना, वो मुझे गिरते हुए सम्हालना, वो हौसला बढ़ाना ।
वो वादा तुम्हारा मुझसे, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो तुम्हारे निगाहों मे स्वप्न मेरे, वो उन्हे पूरे करने की कस्में ।
वो आँसूओं से भरा पैमाना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो हँसना, खिलखिलाना, वो मिलकर ज़िन्दगी कि किताब पढ़्ना ।
वो रूठना-मनाना तुम्हारा, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो कभी शर्म से निगाहें झुकाना, कभी बेखौफ़ बाहों में समाना ।
वो मेरे लिये दुनिया ठुकराना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो एक मोड़ पर तुम्हारा ज़ुदा होना, मेरा उस मोड़ पर इन्तज़ार करना ।
वो तुम्हारा लौटने का वादा, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
आ जाओ की अब साँसों से रिशता भी खत्म होने को हैं ।
यकीन कर लूँ, तुम्हारा वादा, था पूरा, नहीं आधा सच था तुम्हारा ॥
वो मुझको अपना कहना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो स्पर्श, वो आलिंगन, वो कोमल हाथों की छुवन ।
वो तुम्हारा मुझ में समाना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो साथ चलना, वो मुझे गिरते हुए सम्हालना, वो हौसला बढ़ाना ।
वो वादा तुम्हारा मुझसे, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो तुम्हारे निगाहों मे स्वप्न मेरे, वो उन्हे पूरे करने की कस्में ।
वो आँसूओं से भरा पैमाना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो हँसना, खिलखिलाना, वो मिलकर ज़िन्दगी कि किताब पढ़्ना ।
वो रूठना-मनाना तुम्हारा, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो कभी शर्म से निगाहें झुकाना, कभी बेखौफ़ बाहों में समाना ।
वो मेरे लिये दुनिया ठुकराना, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
वो एक मोड़ पर तुम्हारा ज़ुदा होना, मेरा उस मोड़ पर इन्तज़ार करना ।
वो तुम्हारा लौटने का वादा, था पूरा, या आधा सच था तुम्हारा ॥
आ जाओ की अब साँसों से रिशता भी खत्म होने को हैं ।
यकीन कर लूँ, तुम्हारा वादा, था पूरा, नहीं आधा सच था तुम्हारा ॥
Friday, February 5, 2010
तुम्हारी याद
रात्री के गहन अन्धकार मे, जब ये सारा जग सो जाता है,
मेरे इन थकी हारी आँखों को नींद क्यों नहीं आती ।
ढ़ूढ़्तीं रहती है, ना जाने पुराने यादों की गठरी मे कोई सामान,
यादों की यह बोझ, मेरे ज़हन से, क्यों नहीं जाती ॥
क्यों ढूढ़ता रहता हूँ, वो धूल की परत हटाकर,
तुम्हारी तस्वीर में, तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारा प्यार,
तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारी अदा, तुम्हारा कोमल एहसास,
क्यों तुम बेज़ान तस्वीर से बाहर निकलकर नहीं आती ॥
तुम थी, तो रात के अन्धेरें को चीरकर रख दिया था,
तुम्हारे माथे की छोटी बिन्दियां की वो किरण ।
तुम थी, तो रात को जागने को तत्पर रह्ता था मन,
क्यों तुम अब, आसूँओं के ज़रिये भी निगाहों मे नहीं आती ॥
इस रात मे जब चादँ भी अपनी चाँदनी ओढ़कर सो जाता है ,
जब हर शै यहाँ, अपने सपनों की दुनिया मे खो जाता है ।
थमी हुई, इस महफ़िल, मे जब सुनाई देती है खामोंशिया भी,
मेरे इन कानो मे तुम्हारी कोई सदा, क्यों नहीं आती ॥
रात्री के गहन अन्धकार मे, जब ये सारा जग सो जाता है,
मेरे इन थकी हारी आँखों को नींद क्यों नहीं आती ।
मेरे इन थकी हारी आँखों को नींद क्यों नहीं आती ।
ढ़ूढ़्तीं रहती है, ना जाने पुराने यादों की गठरी मे कोई सामान,
यादों की यह बोझ, मेरे ज़हन से, क्यों नहीं जाती ॥
क्यों ढूढ़ता रहता हूँ, वो धूल की परत हटाकर,
तुम्हारी तस्वीर में, तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारा प्यार,
तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारी अदा, तुम्हारा कोमल एहसास,
क्यों तुम बेज़ान तस्वीर से बाहर निकलकर नहीं आती ॥
तुम थी, तो रात के अन्धेरें को चीरकर रख दिया था,
तुम्हारे माथे की छोटी बिन्दियां की वो किरण ।
तुम थी, तो रात को जागने को तत्पर रह्ता था मन,
क्यों तुम अब, आसूँओं के ज़रिये भी निगाहों मे नहीं आती ॥
इस रात मे जब चादँ भी अपनी चाँदनी ओढ़कर सो जाता है ,
जब हर शै यहाँ, अपने सपनों की दुनिया मे खो जाता है ।
थमी हुई, इस महफ़िल, मे जब सुनाई देती है खामोंशिया भी,
मेरे इन कानो मे तुम्हारी कोई सदा, क्यों नहीं आती ॥
रात्री के गहन अन्धकार मे, जब ये सारा जग सो जाता है,
मेरे इन थकी हारी आँखों को नींद क्यों नहीं आती ।
Monday, February 1, 2010
क्या क्या ना भूला, ज़िन्दगी में
कल, टेलिविशन के एक चेनेल (सब) पर "तारक मेहता का उल्टा चश्मा" देख रहा था। ये सीरियल मुझे अच्छा लगता है, क्योंकी यह एक पारीवारिक माहौल दर्शाता हैं । जो बात मुझे छू गयी, वो यह कि, जब मैने सीरिअल में बच्चो को गुड्डो - गुड़ीयों का खेल व्याह रचाते हुए देखा । अचानक ज़हन मे आया, इतनी सादगी, बच्चो मे कहाँ हैं ? बाकी हर चेनेल पर बच्चे या तो नये फ़िल्मी गानो मे मटकते हुए मिलेंगे या फिर बड़ो जैसे जोक्स दोहराते हुए मिलेंगे । वैसे, उनको क्या दोश दे, हम खुद कितना कुछ इस भाग - दौड़ भरी ज़िन्दगी में भूल गये । बच्चे तो कोमल, निर्झर जल की तरह होते हैं, जिस साँचे मे ढाले जायेगें, वैसे ही ढलेंगे ।
पर मै यह सोचने पर मज़बूर हो गया, कि, क्या - क्या ना भूला इस ज़िन्दगी मे । नीचे दी हुई निम्नलिखित पंक्तियों मे कुछ दिल की खोई हुई चीज़े हैं, जिसका मुझे आज अफ़सोस होता है ।
क्या क्या ना भूला, ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी की भाग दौड़ में,
हम रुक कर सम्भलना भूल गये ।
आगे बढ़्ने की ज़द्दोज़हद में,
पीछे मुड़्कर देखना भूल गये ॥
सबको देखकर मुस्कुराने की आदत हो गई,
मगर, जी खोल कर हसंना भूल गये ।
सात समन्दर पार कर लिया, मगर,
काग़ज की कश्ती बनाना भूल गये ॥
कभी, तारे गिन गिन कर रात जागा करते थे,
अब तो आसमाँ की तरफ़ देखना भूल गये ॥
ईमारतो और गाड़ीयों में कट रही ज़िन्दगी,
अब हम पैदल घास पर चलना भूल गये ।
यूँ तो मँज़िल दर मँज़िल पार करते रहे,
और अपने घर का रास्ता भूल गये ॥
पराये को अपनाने की चाहत में ,
हम अपनो से मिलना भूल गये ।
मिलते रहे लोगों से हाथ से हाथ बढ़ाकर,
हाथ जोड़ कर अभिनंदन करना भूल गये ।।
डर रहे हैं हम आंतकियों से, लुटेरो से,
मगर, भगवान से डरना भूल गये ।
घर, दफ़्तर, होटलो में सिमटकर रह गई ज़िन्दगी,
और मंदिर की घन्टी बजाना भूल गये ॥
दुनियादारी निभाने में इतना मशगुल हुए,
माँ - बाप का खयाल रखना भूल गये ।
अपने होंठों पर मुस्कान चाहते रहे सदा,
दूसरो की आँखों से आँसू पोछना भूल गये ॥
’गुड लक’ कह्कर भेज दिया, इन्तिहान में बेटे को,
उसके माथे पर, दही का टीका लगाना भूल गये ।
सजाया घर को खरीदे हुए गुलदस्तों से, मगर,
अपने आँगन मे तुलसी का पौधा लगाना भूल गये ॥
ज़िन्दगी की भाग दौड़ में,
हम रुक कर सम्भलना भूल गये ॥
पर मै यह सोचने पर मज़बूर हो गया, कि, क्या - क्या ना भूला इस ज़िन्दगी मे । नीचे दी हुई निम्नलिखित पंक्तियों मे कुछ दिल की खोई हुई चीज़े हैं, जिसका मुझे आज अफ़सोस होता है ।
क्या क्या ना भूला, ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी की भाग दौड़ में,
हम रुक कर सम्भलना भूल गये ।
आगे बढ़्ने की ज़द्दोज़हद में,
पीछे मुड़्कर देखना भूल गये ॥
सबको देखकर मुस्कुराने की आदत हो गई,
मगर, जी खोल कर हसंना भूल गये ।
सात समन्दर पार कर लिया, मगर,
काग़ज की कश्ती बनाना भूल गये ॥
कभी, तारे गिन गिन कर रात जागा करते थे,
अब तो आसमाँ की तरफ़ देखना भूल गये ॥
ईमारतो और गाड़ीयों में कट रही ज़िन्दगी,
अब हम पैदल घास पर चलना भूल गये ।
यूँ तो मँज़िल दर मँज़िल पार करते रहे,
और अपने घर का रास्ता भूल गये ॥
पराये को अपनाने की चाहत में ,
हम अपनो से मिलना भूल गये ।
मिलते रहे लोगों से हाथ से हाथ बढ़ाकर,
हाथ जोड़ कर अभिनंदन करना भूल गये ।।
डर रहे हैं हम आंतकियों से, लुटेरो से,
मगर, भगवान से डरना भूल गये ।
घर, दफ़्तर, होटलो में सिमटकर रह गई ज़िन्दगी,
और मंदिर की घन्टी बजाना भूल गये ॥
दुनियादारी निभाने में इतना मशगुल हुए,
माँ - बाप का खयाल रखना भूल गये ।
अपने होंठों पर मुस्कान चाहते रहे सदा,
दूसरो की आँखों से आँसू पोछना भूल गये ॥
’गुड लक’ कह्कर भेज दिया, इन्तिहान में बेटे को,
उसके माथे पर, दही का टीका लगाना भूल गये ।
सजाया घर को खरीदे हुए गुलदस्तों से, मगर,
अपने आँगन मे तुलसी का पौधा लगाना भूल गये ॥
ज़िन्दगी की भाग दौड़ में,
हम रुक कर सम्भलना भूल गये ॥
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