मिट गई है जो अपने हाथों से, वो लकीरे ढूढ़ंते रहे ।
तराश सके हमारे तकदीर को, ऐसा कारीगर ढूढ़ंते रहे ॥
दूर होकर भी भुला ना पाया है, ये दिल उनको,
फ़ासलों के दरमियाँ हम नज़दिकीयाँ ढूढ़ंते रहे ॥
तेरे होठों पर एक मुस्कुराहट की ख्वाईश लिये,
तमाम उम्र, काटों के चमन में कलीयाँ ढूढ़ंते रहे ।
यकीन कुछ इस कदर था, तेरे वादे पर हमे,
हम अमावस की रात में पूनम का चाँद ढूढ़ंते रहे ॥
घर के आंगन मे जलता था जो चराग़ कभी,
उसकी लौ, हम शहर की बिजलियो मे ढूढ़ंते रहे ।
सिमट कर रह गई हैं ज़िन्दगी चार दिवारो में,
बन्द कमरे मे रहकर, खुला आसमान ढूढ़ंते रहे ॥
सामने था, जो रोते बच्चो को ताउम्र हसाँया किया,
और हम मंदिर-मस्ज़िद, उम्र भर, ख़ुदा को ढूढ़ंते रहे ।
आज निगाहें है ना जाने क्यों, अश्को से डबडबाई हुई,
बुढ़ापे के दहलीज़ पर, बचपन की किलकारियाँ ढूढ़ंते रहे ॥
यकीन कुछ इस कदर था, तेरे वादे पर हमे,
ReplyDeleteहम अमावस की रात में पूनम का चाँद ढूढ़ंते रहे
और
सिमट कर रह गई हैं ज़िन्दगी चार दिवारो में,
बन्द कमरे मे रहकर, खुला आसमान ढूढ़ंते रहे
ये दोनों शेर बहुत अच्छे लगे. मुबारकबाद
तेरे होठों पर एक मुस्कुराहट की ख्वाईश लिये,
ReplyDeleteतमाम उम्र, काटों के चमन में कलीयाँ ढूढ़ंते रहे ।
यकीन कुछ इस कदर था, तेरे वादे पर हमे,
हम अमावस की रात में पूनम का चाँद ढूढ़ंते रहे ॥
सुंदर शब्दों के साथ.... ..........बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....
bahut sunder rachana.
ReplyDeleteतेरे होठों पर एक मुस्कुराहट की ख्वाईश लिये,
ReplyDeleteतमाम उम्र, काटों के चमन में कलीयाँ ढूढ़ंते रहे ।
यकीन कुछ इस कदर था, तेरे वादे पर हमे,
हम अमावस की रात में पूनम का चाँद ढूढ़ंते रहे ॥
behad khoobsurat rachna ,achchhi lagi .
बहुत ही शानदार और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!
ReplyDeleteMubarakbaad kubool farmaayen!
ReplyDeleteMaza aa gaya!
Behatareen virodhabhas se labrez hai aapki rachna, faaslon mein nazdikiyaan, amavas mein poonam ka chaand!
Sadhuwad!
बहुत खूब भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteशानदार,लाजवाब, बढ़िया.............
ReplyDeleteaane waali rachnaon ka intzaar rahega......
also visit my blog.....
यकीन कुछ इस कदर था, तेरे वादे पर हमे,
ReplyDeleteहम अमावस की रात में पूनम का चाँद ढूढ़ंते रहे ..
गुनाह किया तेरे वादे पे एइत्बार किया ......
बहुत अच्छा लिखा है आपने .. मज़ा आ गया पढ़ कर ..
मिट गई है जो अपने हाथों से, वो लकीरे ढूढ़ंते रहे ।
ReplyDeleteतराश सके हमारे तकदीर को, ऐसा कारीगर ढूढ़ंते रहे ॥
दूर होकर भी भुला ना पाया है, ये दिल उनको,
फ़ासलों के दरमियाँ हम नज़दिकीयाँ ढूढ़ंते रहे ॥
Harek panktike liye wah!
meri nayi rachna jaroor dekhein, aapki pratikriya ka intzaar rahega...
ReplyDeleteघर के आंगन मे जलता था जो चराग़ कभी,
ReplyDeleteउसकी लौ, हम शहर की बिजलियो मे ढूढ़ंते रहे ।
bahut khoobsurat panktiyan hain...
shandar....atiuttam.....dher sari badhaiyan
ReplyDeletebahut sundar rachna
ReplyDeletedipayan sahab
घर के आंगन मे जलता था जो चराग़ कभी,
उसकी लौ, हम शहर की बिजलियो मे ढूढ़ंते रहे ।
abhar...........
http://i555.blogspot.com/ mein is baar तुम मुझे मिलीं....
ReplyDeletejaroor dekhein...
tippani ka intzaar rahega.
यकीन कुछ इस कदर था, तेरे वादे पर हमे,
ReplyDeleteहम अमावस की रात में पूनम का चाँद ढूढ़ंते रहे ॥
वाह....वाह.......!
is baar mere blog par ek english poem....
ReplyDeletehope your comments will come...
mere blog par is baar..
ReplyDeleteवो लम्हें जो शायद हमें याद न हों......
jaroor aayein...
mere blog par is baar..
ReplyDeleteनयी दुनिया
jaroor aayein....
Padhke gayi thi,lekin phir ekbaar padhneka man kiya...gahrayi hai,aur ek baarme thaah nahi lagta!
ReplyDeleteआपकी यह रचना बहुत सुन्दर है ! भावनायों में गहराई है, लिखने का लहजा खुबसूरत है, बस एक बात कहना चाहूँगा की ज़रा सा काफिये का ध्यान रखियेगा... बाकी सब ठीक है ...बहुत सुन्दर है ! उम्मीद है मेरे सुझाव का बुरा नहीं मानेंगे ...
ReplyDeleteसिमट कर रह गई हैं ज़िन्दगी चार दिवारो में,
ReplyDeleteबन्द कमरे मे रहकर, खुला आसमान ढूढ़ंते रहे ॥
रचना बहुत सुन्दर है ! KEEP IT UP.....
सिमट कर रह गई हैं ज़िन्दगी चार दिवारो में,
ReplyDeleteबन्द कमरे मे रहकर, खुला आसमान ढूढ़ंते रहे ॥
रचना बहुत सुन्दर है ! KEEP IT UP.....