कल, टेलिविशन के एक चेनेल (सब) पर "तारक मेहता का उल्टा चश्मा" देख रहा था। ये सीरियल मुझे अच्छा लगता है, क्योंकी यह एक पारीवारिक माहौल दर्शाता हैं । जो बात मुझे छू गयी, वो यह कि, जब मैने सीरिअल में बच्चो को गुड्डो - गुड़ीयों का खेल व्याह रचाते हुए देखा । अचानक ज़हन मे आया, इतनी सादगी, बच्चो मे कहाँ हैं ? बाकी हर चेनेल पर बच्चे या तो नये फ़िल्मी गानो मे मटकते हुए मिलेंगे या फिर बड़ो जैसे जोक्स दोहराते हुए मिलेंगे । वैसे, उनको क्या दोश दे, हम खुद कितना कुछ इस भाग - दौड़ भरी ज़िन्दगी में भूल गये । बच्चे तो कोमल, निर्झर जल की तरह होते हैं, जिस साँचे मे ढाले जायेगें, वैसे ही ढलेंगे ।
पर मै यह सोचने पर मज़बूर हो गया, कि, क्या - क्या ना भूला इस ज़िन्दगी मे । नीचे दी हुई निम्नलिखित पंक्तियों मे कुछ दिल की खोई हुई चीज़े हैं, जिसका मुझे आज अफ़सोस होता है ।
क्या क्या ना भूला, ज़िन्दगी में
ज़िन्दगी की भाग दौड़ में,
हम रुक कर सम्भलना भूल गये ।
आगे बढ़्ने की ज़द्दोज़हद में,
पीछे मुड़्कर देखना भूल गये ॥
सबको देखकर मुस्कुराने की आदत हो गई,
मगर, जी खोल कर हसंना भूल गये ।
सात समन्दर पार कर लिया, मगर,
काग़ज की कश्ती बनाना भूल गये ॥
कभी, तारे गिन गिन कर रात जागा करते थे,
अब तो आसमाँ की तरफ़ देखना भूल गये ॥
ईमारतो और गाड़ीयों में कट रही ज़िन्दगी,
अब हम पैदल घास पर चलना भूल गये ।
यूँ तो मँज़िल दर मँज़िल पार करते रहे,
और अपने घर का रास्ता भूल गये ॥
पराये को अपनाने की चाहत में ,
हम अपनो से मिलना भूल गये ।
मिलते रहे लोगों से हाथ से हाथ बढ़ाकर,
हाथ जोड़ कर अभिनंदन करना भूल गये ।।
डर रहे हैं हम आंतकियों से, लुटेरो से,
मगर, भगवान से डरना भूल गये ।
घर, दफ़्तर, होटलो में सिमटकर रह गई ज़िन्दगी,
और मंदिर की घन्टी बजाना भूल गये ॥
दुनियादारी निभाने में इतना मशगुल हुए,
माँ - बाप का खयाल रखना भूल गये ।
अपने होंठों पर मुस्कान चाहते रहे सदा,
दूसरो की आँखों से आँसू पोछना भूल गये ॥
’गुड लक’ कह्कर भेज दिया, इन्तिहान में बेटे को,
उसके माथे पर, दही का टीका लगाना भूल गये ।
सजाया घर को खरीदे हुए गुलदस्तों से, मगर,
अपने आँगन मे तुलसी का पौधा लगाना भूल गये ॥
ज़िन्दगी की भाग दौड़ में,
हम रुक कर सम्भलना भूल गये ॥
मिलते रहे लोगों से हाथ से हाथ बढ़ाकर,
ReplyDeleteहाथ जोड़ कर अभिनंदन करना भूल गये ।।
कुछ-कुछ मुखड़े बहुत बेहतरीन लिखे है दीपायन जी,
यह रचना आधुनिक अनुकरण प्रवृत्ति और अपसंस्कृति की दशा का वास्तविक चित्रण है।
ReplyDeleteयूँ तो मँज़िल दर मँज़िल पार करते रहे,
ReplyDeleteऔर अपने घर का रास्ता भूल गये ॥
दूर देश में रहने का दर्द बहुत भावपूर्ण बन पढ़ा है. भूल जाते तो रचना इस तरह नहीं होती - अपने संस्कार और संस्कृति को याद रखने के लिए धन्यवाद.
ये भागदौड़ भरी जिंदगी बहुत कुछ भुला रही है । छोटे को बड़ा , तो बड़े को और बड़ा बनना है ।
ReplyDeleteईमारतो और गाड़ीयों में कट रही ज़िन्दगी,
ReplyDeleteअब हम पैदल घास पर चलना भूल गये ।
यूँ तो मँज़िल दर मँज़िल पार करते रहे,
और अपने घर का रास्ता भूल गये ॥
ज़िन्दगी की सच्चाई और वास्तविकता को आपने बखूबी शब्दों में पिरोया है! इस शानदार रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
सबको देखकर मुस्कुराने की आदत हो गई,
ReplyDeleteमगर, जी खोल कर हसंना भूल गये ।
सात समन्दर पार कर लिया, मगर,
काग़ज की कश्ती बनाना भूल गये..
बहुत दिल के करीब से ही कहा है अपने ........... इस आपाधापी में .......... हम अपना पचपन ...... अपना सबकुछ भूल गये हैं ...........
आप सभी का हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत शुक्रिया ।
ReplyDeleteBahut sunder rachana .....
ReplyDeleteAaj kee soch ka ekdam sahee chitran kiya hai aapne...........
ये भागदौड़ भरी जिंदगी बहुत कुछ भुला रही है । छोटे को बड़ा , तो बड़े को और बड़ा बनना है ।
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