Wednesday, February 17, 2010

बाघ के दिल से

कभी तुम थर्र-थर्र कापाँ करते थें हमारी गर्जना से,
आज हम तुम्हारी कदमों की आहट से घबराते हैं ।
कभी तुम नज़रे नहीं मिला पाते थें हमारी नज़र से,
आज हम तुम्हारा सामना करने से कतराते हैं ॥

कभी तुम जागा करते थें रातो को, हमारे खौफ़ से,
आज हम अपने बच्चो को सीने से लगाये रहते हैं ।
सोते हो तुम चैन से, ईट-पत्थरों से बनायें हुए घर पे,
और हम खुले जंगलों मे भागे- भागे फिरते हैं ॥

कभी हम एक, भारी पड़ते थें, तुम्हारे जैसे सैकड़ो पर,
आज तुम्हारी एक गोली से ज़ान बचाकर भागते हैं ।
हमने जब भी संहार किया, मज़बूरी में, पेट के खातिर किया,
पर तुम्हारे जैसे, हमको मार कर दिवार पर सजाते हैं ॥

यूँ तो, कहने को, हम इस देश मे राष्ट्रीयता के प्रतीक हैं ।
पर, बाशिन्दे यहाँ के, हमारे ही खालो का सौदा करते हैं ॥
सुना हैं, अब हम, एक हज़ार चार सौ ग्यारह, ही जीवित बचे हैं ।
आज तुमसे ज़िन्दगी की भीख नहीं, इन्सानियत का दावा करते हैं ॥

8 comments:

  1. यथार्थबोध के साथ कलात्मक जागरूकता भी स्पष्ट है।

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  2. यूँ तो, कहने को, हम इस देश मे राष्ट्रीयता के प्रतीक हैं ।
    पर, बाशिन्दे यहाँ के, हमारे ही खालो का सौदा करते हैं ॥
    सुना हैं, अब हम, एक हज़ार चार सौ ग्यारह, ही जीवित बचे हैं ..

    टी वी की बातों के लिए या नेताओं के लिए और बस प्रतीक ही रह गये हैं ये ..... इनके नाम पर राजनीति से लेकर पैसे का खेल जारी है ... अभी तो १४११ हैं जल्दी ही ११ रह जाएँगे ....

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  3. कभी हम एक, भारी पड़ते थें, तुम्हारे जैसे सैकड़ो पर,
    आज तुम्हारी एक गोली से ज़ान बचाकर भागते हैं ।
    हमने जब भी संहार किया, मज़बूरी में, पेट के खातिर किया,
    पर तुम्हारे जैसे, हमको मार कर दिवार पर सजाते हैं ॥
    behad sanjeede sawal hain janab. badhai..

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  4. एक हज़ार चार सौ ग्यारह ...बस ....?

    ये गणना तो आपसे ही पता चली ......बाघ के दिल से बहुत खूब चित्र खींचे हैं आपने .....!!

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  5. बाघ की कहानी उसी की जुबानी खूब कही है आपने । इस सटीक ओर सामयिक कविता के लिये बधाई ।

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